डा. के. जे. भटनागर की कविता "उत्सव" का विश्लेषण - इस कविता में कवि ने संसार के मंगलमय स्वरूप को प्रस्तुत किया है | सारी सृष्टि में मधुर रागिनी सरस धारा बहती रहती है | परम पिता परमात्मा की मधुर लीला में डूबने का क्षण है सारी सृष्टि मे शिव चेतना की व्याप्त है ; इसमे बहती है लोक मंगल की गंगा || सारी सृष्टि में विराट् चेतना का वैभव है राधा की पायल की प्रणव ध्वनि कण-कण में व्याप्त है यह सब में प्राण चेतना भरती है उसमें जो लीन होजाता है वह परम आनन्द को प्राप्त होता है | भीतर से उत्पन्न आनन्द ही सत्य है | यही रागात्मक वृत्तियों का जनक है लेकिन भौतिकता जड़ अस्थायी भावों को जन्म दे रही है ये भाव वासना परक है और कुछ दिनों में मृतप्राय: हो जाते है कवि विराट् चेतना का आह्वान करता है जिससे वैदिक मंत्रों के समान उठते श्वासो की सरगम साध सके जिससे आत्मा -परमात्मा का साक्षात्कार हो सके |यही सच्चा प्रणय है प्रेम तो परमात्मा का रुप जो कभी राधा की पायल में दिखता है तो कभी मीरां के इक तारे में दिखता है | कवि की पूरी कविता मेरे नोट उत्सव में उल्लखित हैं अवश्य पढे
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