गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

 डा. के. जे. भटनागर की कविता "उत्सव" का विश्लेषण - इस कविता में कवि ने संसार के मंगलमय स्वरूप को प्रस्तुत किया है | सारी सृष्टि में मधुर रागिनी सरस धारा बहती रहती है | परम पिता परमात्मा की मधुर लीला में डूबने का क्षण है सारी सृष्टि मे शिव चेतना की  व्याप्त है ; इसमे बहती है लोक मंगल की गंगा  || सारी सृष्टि में विराट् चेतना  का वैभव है राधा की पायल की प्रणव ध्वनि  कण-कण में व्याप्त है यह सब में प्राण  चेतना भरती है उसमें जो लीन होजाता है वह परम आनन्द को प्राप्त होता है | भीतर से उत्पन्न आनन्द  ही सत्य है  | यही रागात्मक वृत्तियों का जनक है लेकिन भौतिकता जड़ अस्थायी भावों को जन्म दे रही है ये भाव वासना परक है और कुछ दिनों में मृतप्राय: हो जाते  है कवि विराट् चेतना का आह्वान करता है जिससे वैदिक मंत्रों के समान उठते श्वासो की सरगम साध सके जिससे आत्मा -परमात्मा  का साक्षात्कार हो सके |यही सच्चा प्रणय है  प्रेम तो परमात्मा का रुप जो कभी राधा की पायल में दिखता है तो कभी  मीरां के इक तारे में दिखता है | कवि की पूरी कविता  मेरे नोट उत्सव  में उल्लखित हैं अवश्य पढे

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