कल्पना के गीत तुमने बहुत गाये |
लो धरा का गीत सुन लो में सुनाता ||
वक्ष से जिसके सुधा की धार बहती |
वह धरा जो पावनी मंगलमयी है||
चेतना के स्पर्श से जड को जगाती |
मातृ रूपा वत्सला मंगल मयी है ||
उस धरा -वंदन - नमन के स्वर सुनता |
लो धरा का गीत सुन लो में सुनाता ||
यह धरा है : आदमी रहता यहाँ है |
आदमी जो सृष्टि की अनुपम कला है |
आदमी है : प्यार का उत्सव यहाँ है ||
राग का आलोक ऐसा फिर कहाँ ?
मानवी उत्कर्ष की गाथा सुनाता |
लो धरा का गीत सुन लो ; में सुनाता ||
यह धरा तो उत्सवों -मेलों भरी है |
चटखती कलियां यहाँ मधुरस लुटाती |
नूपुरी झंकार की मादक हँसी भी
खेत की पकती फ़सल के गीत गाती
धरा के मधु मिलन के चिर स्वर सुनाता ---- वैखरी का भाव- कवि के. जे. भटनागर
लो-----------------------------------------आशा भटनागर
\
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें